कभी पेन में स्याही भराने को नहीं थे पैसे, शिक्षक बने तो दान किए 40 लाख।

0 भीषण गरीबी और संघर्षों के बीच पले बढ़े शासकीय प्राथमिक शाला के एक शिक्षक जब रिटायर हुए तो उन्होंने जीपीएफ और ग्रेच्युटी की अपनी पूरी जमा पूंजी दान कर दी। ताकि उसके ब्याज से क्षेत्र के गरीब बच्चे शिक्षित हो सकें। मध्यप्रदेश के पन्ना जिले का यह शिक्षक इन दिनों चर्चा में है। संघर्षों से परिपूर्ण इनके जीवन यात्रा की क्या है अनकही कहानी, जानें।

पन्ना (मध्यप्रदेश)। गरीबी बहुत खराब होती है, इससे बड़ी न तो कोई बीमारी है और न ही कोई मार, गरीब को इंसान भी नहीं समझा जाता। सिर्फ शिक्षा में ही वह शक्ति है जो किसी गरीब के जीवन को संवार सकती है। छोटे से आदिवासी बहुल गांव खंदिया स्थित प्राथमिक शाला में पदस्थ रहे शिक्षक विजय कुमार चंसौलिया ने चर्चा करते हुए यह बात कही। 38 वर्ष 6 माह तक सहायक शिक्षक के रूप में शासकीय सेवा में रहा, इस दौरान मुझे खूब प्रेम और सम्मान मिला। सेवानिवृत्त होने पर मैं संतुष्ट हूं, मेरे दोनों बच्चे शासकीय सेवा में हैं। एक पुत्री है जिसकी शादी हो चुकी है तथा दामाद बैंक मैनेजर के पद पर हैं। ऐसी स्थिति में रिटायर होने के बाद मिलने वाली धनराशि का मैं क्या करूंगा? इस पैसे का सदुपयोग हो इस मंशा से मैंने जीपीएफ और ग्रेच्युटी में मिलने वाली राशि जो लगभग 40 लाख है, उसे दान करने का निर्णय लिया है। इस निर्णय में मेरी पत्नी श्रीमती हेमलता चंसौरिया, दोनों पुत्रों व पुत्री की भी सहमति है। रिटायर्ड शिक्षक श्री चंसौरिया ने बताया।

पन्ना शहर के टिकुरिया मोहल्ला स्थित अपने निवास में शिक्षक विजय कुमार चंसौरिया ने दिल खोल कर बात की। उन्होंने बताया कि उनका बचपन भीषण गरीबी में गुजरा है। प्राथमिक शिक्षा आठवीं तक पन्ना जिले के अजयगढ़ कस्बे में ली। इसके बाद पन्ना आ गया लेकिन गरीबी के कारण नौवीं व दसवीं की पढ़ाई स्कूल जाकर नहीं कर सका। आपने बताया कि उस समय आर्थिक अभाव के कारण 13- 14 वर्ष की उम्र में उन्हें रिक्शा चलाने को मजबूर होना पड़ा। तकरीबन डेढ़ साल तक पन्ना में रिक्शा चलाया, यह दौर बहुत ही अपमानजनक रहा। रात के समय अक्सर पियक्कड़ रिक्शे में बैठ जाते और गाली गलौज करते तथा पैसा भी नहीं देते थे। जब हालात सहनशक्ति से बाहर हो गई तो रिक्शा चलाना बंद कर दिया और जीवन यापन के लिए दूध बेचना शुरू किया।

अपने गुजरे हुए अतीत के संघर्षपूर्ण दिनों को याद करते हुए चंसौरिया जी ने आगे बताया कि दूध बेचने का काम भी आसान नहीं था। पन्ना से 10-12 किलोमीटर दूर रानीपुर गांव दूध लेने जाना पड़ता था, जहां पहुंचने के लिए उस समय सड़क मार्ग नहीं था। घने जंगल व घाटी से होकर दूध लेने जब रानीपुर जाता  तो रास्ते में अक्सर हिंसक प्राणियों से भी आमना-सामना हो जाता था। चंसौरिया बताते हैं कि रानीपुर गांव में उन्हें डेढ़ रुपए लीटर दूध मिलता था, जिसे पन्ना लाकर वे दो रुपये लीटर के भाव से बेचते थे। इस तरह किसी भांति गुजारा चलता रहा। आपने बताया कि उन्होंने नौवीं व दसवीं की नियमित पढ़ाई नहीं की, सीधे 11 वीं बोर्ड (उस समय 11वीं हायर सेकेंडरी बोर्ड होता था) की परीक्षा दी और अच्छे नंबरों से पास हो गया।

मामा के घर रहकर रोड लाइट में की पढ़ाई 

हायर सेकेंडरी 11वीं की परीक्षा किन परिस्थितियों में दी इसका जिक्र करते हुए चंसौरिया बताते हैं कि उस समय वे अपने मामा दुर्गा प्रसाद उपाध्याय के घर में रहते थे। बिजली की उपलब्धता न होने के कारण रात्रि में मठिया तालाब के किनारे रोड लाइट में पढ़ाई करते थे। वर्ष 1977 में रोड लाइट की रोशनी में पढ़कर 11वीं की परीक्षा दी थी। उस दौर का जिक्र करते हुए आपने बताया कि रोड लाइट में पढ़ना भी आसान नहीं था। क्योंकि रात के 11:00 बजे तक असामाजिक तत्वों व शराबियों का मठिया तालाब के आसपास जमावड़ा लगा रहता था। इसकी वजह का खुलासा करते हुए आपने बताया कि तालाब के किनारे ही देसी शराब की दुकान थी। जाहिर है कि पढ़ाई रात 11:00 बजे के बाद ही हो पाती थी।

पेन में स्याही भराने को भी नहीं थे पैसे 

वह दिन मुझे आज भी याद है, 11 वीं बोर्ड का आखिरी पेपर अर्थशास्त्र का था। उस दिन मेरे पेन की स्याही खत्म हो गई थी और स्याही भराने को मेरे पास पैसे नहीं थे। कई सहपाठियों से स्याही मांगी लेकिन किसी ने नहीं दी, मैं घबरा रहा था कि परीक्षा कैसे दूंगा और इसी चिंता में डूबा परीक्षा केंद्र की तरफ जा रहा था। तभी रास्ते में दिनेश सिंह मिले जो परीक्षा देने जा रहे थे, उन्होंने अपने पेन से मेरे पेन में स्याही डाली। चंसौरिया आगे बताते हैं कि दिनेश सिंह से उनकी दोस्ती फुटबॉल खेलते समय हुई थी। उन्होंने संकट के समय मेरी बहुत मदद की। मूलतः वे प्रतापगढ़ उत्तर प्रदेश के निवासी थे, उनके पिता पन्ना में मलेरिया इंस्पेक्टर के पद पर कार्यरत थे। अपने पुराने मित्र के प्रति कृतज्ञता जाहिर करते हुए चंसौरिया बताते हैं कि मेरे पास पढ़ने को किताबें भी नहीं रहती थीं, दिनेश सिंह मुझे किताबें देते थे। भावुक होकर चंसौरिया कहते हैं "हमने गुजार दी है फकीरी में जिंदगी, लेकिन कभी जमीर का सौदा नहीं किया"।

मेरे निर्णय में परिवार के सभी सदस्यों की सहमति

सेवानिवृत्त शिक्षक विजय कुमार चंसौरिया ने बताया कि वे जिस प्राथमिक शाला से रिटायर हुए हैं वह छोटे से गांव खंदिया में स्थित है। शत प्रतिशत आदिवासी इस गांव में रहते हैं, जो बेहद गरीब हैं। इस गांव की आदिवासी महिलाएं जंगल से लकड़ी लाकर पन्ना में बेचने जाती हैं तथा पुरुष मजदूरी करते हैं। बहुत मुश्किल से इनका गुजारा चलता है। इन हालातों में इनकी प्राथमिकता बच्चों को शिक्षित कराना नहीं होता। इन गरीब आदिवासी परिवारों के बच्चे शिक्षित होकर सामर्थ्यवान बनें, इस मंशा से मैंने जीपीएफ व ग्रेजुएटी की राशि दान में दी है। 

मेरे इस निर्णय से पत्नी श्रीमती हेमलता चंसौरिया तो खुश हैं ही, परिवार के अन्य सदस्य पुत्र, पुत्रवधू व पुत्री सभी की सहमति है। घर में मौजूद छोटे पुत्र गौरव चंसौरिया से इस बाबत पूछे जाने पर उन्होंने बताया कि हमारे पिता ने गरीबों के कल्याण हेतु यह निर्णय लिया है, इस पर हमें गर्व है। आपने बताया कि वे महिला बाल विकास विभाग में अकाउंटेंट के पद पर हैं, हम खुशहाल हैं किसी चीज की कमी नहीं है। पास ही अपनी 5 वर्षीय बेटी देवांशी को गोद में लिए बैठी चंसौरिया जी की पुत्री महिमा ने भी अपने पिता के निर्णय पर खुशी का इजहार किया। सेवानिवृत्त शिक्षक श्री चंसौरिया कहते हैं कि सच्चाई की राह में चले तो वह मुकाम जरूर मिलता है, जहां सुकून है। शासकीय प्राथमिक शाला खंदिया में हुई भावभीनी विदाई व पन्ना शहर में लोगों द्वारा किए जा रहे स्वागत और सम्मान की चर्चा करने पर उन्होंने कहा "मंजिल पर मुझे देखकर हैरा हैं सभी लोग, पर पांव में पड़े किसी ने छाले नहीं देखे"।

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